सत्य बोलने के लिए दो लोग चाहिए होते हैं: एक वह जिसके अंदर सच बोलने का साहस हो और दूसरा जिसके अंदर सच सुनने की सहनशक्ति। • आजकल सत्य इसीलिए लुप्त होता जा रहा है। वह सहिष्णुता नदारद हो गयी है जो सच सुन सके, विशेषकर वह सच जो अनुकूल न हो। वह जमाना, वे लोग, वह संस्कृति कब का चला गया, जो आंगन के निंदक के लिए कुटिया बनाता था। अब तो सच बोलना तो दूर बोलना भी है गुनाह। कुछ इस तरह जैसा दुष्यंत कुमार ने महसूस किया था। मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ पर कहता नहीं, बोलना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार। आप ढूंढते रहिए सच बोलने वालों को, वह शख्स शायद मिल भी जाय लेकिन सच बोलते हुए नही मिलेगा, इसलिए नही कि उसके पास बोलने के लिए सच नही है। आज भी सच बोलने की इच्छा सबको है परन्तु सच को सुनने वाले नही रहे, सच सहने वाले नही हैं। जो सच किरदार को इनाम का हकदार बनाता था, आज वही दया का पात्र बना देता है। सच की तासीर तो फायदेमंद हो सकता है पर ज़ायका बहुत कड़वा होता है, नाक़ाबिले बर्दास्त होता। सत्य की सच्चाई ठीक उसी तरह है कि सब चाहते है भगत सिंह पैदा हो परन्तु पड़ोसियों के घर (कौन अपने बेटे को फांसी पर लटक