सत्व समर्पण
सत्व समर्पण
विरह क्या सींचा नही था
तिनके तिनके जलते तन
उलट पलट कर रहा सेकता
भावों से भींगे निज मन को।
नीरवता बन नागिन डसती थी
यादों की धुधली परछाई
इच्छाधारी नाग सा नाचू
पर छलने की कला न आई .
ताक रहा निस रैन चाँद मैं
दे दे श्राप सदा छिपने की
चाँद मुझे तड़पा तड़पा कर
बांधा बनता रहा मिलन की.
शर्माता सम्पूर्ण जगत है
देख तेरी छलकी गंगोत्री
भिक्षुक मन अब भोज बना है
दिल दीपक में प्रीती की ज्योति .
यू पी सिंह
12.10.92
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