ग़ज़ल
न चाहता हूँ जन्नत से महक जाफरान की
चाहता हूँ खुले खिड़की सदा उनके माकन की ।
उड़ता हुआ परिंदा हर बार रोया है
कहाँ खो गई है सारिका शुक बेक़रार की।
सुई बिना धागे जीस्त तेरे वियोग में
सीने के शौक में मिला है दर्द ज़िगर का ।
इस चाहमें उड़ता रहा गली छत जवार में
मिटटी में मिल सका अगर तेरे बाज़ार की।
मैं जिंदगी फलक का वह आफताब हूँरोशन चिरागे हो रहा आंधी में शाम की।
चाहता हूँ खुले खिड़की सदा उनके माकन की ।
उड़ता हुआ परिंदा हर बार रोया है
कहाँ खो गई है सारिका शुक बेक़रार की।
सुई बिना धागे जीस्त तेरे वियोग में
सीने के शौक में मिला है दर्द ज़िगर का ।
इस चाहमें उड़ता रहा गली छत जवार में
मिटटी में मिल सका अगर तेरे बाज़ार की।
मैं जिंदगी फलक का वह आफताब हूँरोशन चिरागे हो रहा आंधी में शाम की।
उत्तम
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