बसंतोत्सव - और फागुनी दोहे
नयन मछेरन बन गये फेंक रूप का जाल
अबके फागुन में तेरा गाल करेंगे लाल .
मस्त मंजरी बौर से भरे आम के पेंड़
संयम बहता तोड़ कर प्रतिबंधो का मेड़.
मन की सुधि का दीप है तन टेंसू का फूल
फागुन में नैना करे बार बार क्यों भूल .
प्रीतम की सुधि आ गई बज़ी झांझ और चंग
गोरी अलसाई खड़ी टूट रहा सब अंग .
दूर कहीं चौपाल में चहका और कबीर
प्रीतम है परदेसियाँ मन हो गया अधीर .
बुढाऊ भी देवर लगे जब जब आये फाग
बिन दांतों के गा रहे भीम पलासी राग .
रोष भरा संकोच है लेकिन मन मनुहार
फागुन में ढहने लगी संयम की दीवार.
उत्तम १७.३. ९२
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