शब्द मेरे मौन से क्यों है.
विश्व का विन्यास खोकर ,
शब्द मेरे मौन से क्यों है.
प्रीत का परवान होकर
स्वप्न मेरे व्योम से क्यों.
नीड़ बिन, उजड़े चमन में,
मधुप की चंचल उमंगे.
तृप्ति सागर नेह जल में,
सो गई तन की तरंगे .
ताज के स्वर्णिम चमक में,
चीखते है आह जग के
कल्पना के इन्द्रधनु में,
भीगते है घाव मन के.
यूँ ना हंसकर रोकिये ,
मेरी मंजिल का सफर .
मेघ मन से अब हटा है,
दूर दिखती एक किरन .
पी नही सकता हलाहल,
शिव की कोई चाह नही.
हृदय हीन हो चुका कभी का,
दृष्टी बची पर आँख नही.
उत्तम २२.१०.९५
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