ग़ज़ल

भवरों में उलझती मचलती चली गयी, तिनके के सहारे बहकती चली गयी . साहिल पर बैठा रहा उसके दीदार को, आँखों मेरे धुल उड़ाती चली गयी . चीखा था चिल्लाया था एक हाथ लिए, समन्दर के बीच अंगूठा दिखाती चली गयी. मैंने तो जिंदगी भर थे फूल खिलाये, मंजिल तलक वह शूल बिछाती चली गयी. कोशिशों के बाद तो रोशन हुआ था घर, वह आई चिराग झटके से बुझाती चली गयी. उसकी इस अदा पर था लोगों को बहुत रंज, मुझे फक्र है पल भर तो हँसाती चली गयी. कयामत के अंत तक भी हँसता रहा हूँ मैं, जन्नत के महल में वह जलती चली गयी. उत्तम २५.०५.९५