फिर भी मिडिया ईमानदार नही रही-------





फिर भी मिडिया ईमानदार नही रही-------
 
 
 
 
 
                लोकतंत्र में मिडिया को चौथा खम्भा माना जाता है, असल में माना क्या जाता है , है ही।मिडिया की आवश्यकता भी इसीलिए है क्योकि इतर तीन  पायें कमज़ोर  होते जा रहे है।आज विधायिका का दिवालियापन किसी से  छुपा  नही है। न्यायपालिका तक हर कोई पहुँच  नही पाता . न्याय के तीन  पीढ़ियों तक की यात्रा वह भी प्रश्न  चिन्हों के साथ मिलेगा भी की नही। इसलिए मिडिया आम आदमी की आवाज का शसक्त मंच होता है। परन्तु  आज कल मिडिया जिस तरह से मामलों का पोस्टमार्टम और ट्रायल करने लगा है कभी कभी प्रतीत होता है  कि  मिडिया पारदर्शी नही पक्ष या पैरवीकार की भूमिका में है। जिस तरह पुलिस पर प्रायोजित मुठभेड़ का आरोप  लगता है कदाचित कुछ वैसा ही मिडिया भी कटघरे में कड़ी हो जाती है।  दुसरे शब्दों में चारण गान करता दिखता  है। सत्ता अथवा धन शक्ति के यश गान में ज्यादातर मिडिया कोरस में स्वर मिला चुके है। विवशता  भी  हो सकती है। प्रसार भारती में सरकारी हस्तक्षेप पर तब के सूचना प्रसारण मंत्री प्रमोद महाजन ने स्पष्ट  कहा था की  " सरकार जब पैसे खर्च करेगी तब यैसे प्रभावशाली माध्यम को कम्युनिष्टों को कैसे सौप देगी ". मतलब साफ़ था सरकार पैसे खर्च करके लोंगों को कठपुतली का नाँच दिखाएंगी और नांच भी वही जो सरकार  के लिए सुविधाजनक हो। चंद  रुपयों की कीमत पर योग्य और निष्पक्ष बुद्धिजिवियों के हाथों प्रसार भारती नहीं  सौपी  जा  सकती  परन्तु  इस देश का दुर्भाग्य है कि अरबों खरबों का मंत्रालय योग्य, भ्रष्ट व नालायकों के हाथों  में जाने से रोकने की न  व्यवस्था है न चिंता . 75 - 80 करोड़ लोंगों तक पहुचने वाला विराट माध्यम कुछ  चुनिन्दा  लोगों के हाथों में कैद है। जाहिर तौर पर दिखता कुछ भी हो पर शासन भी गिने चुने उद्यमियों  और  पूंजीपतियों का ही प्रतिनिधित्व करती है।मिडिया कर्मियों / रचनाधर्मियों के अन्दर भले ही सिद्धन्तों  और  नैतिकता के कीड़े कुलबुलाते हो , आकाओं की इच्छा के प्रतिकूल कुछ न कर पाने की छटपटाहट नेपथ्य में जरुर  महसूस किया जा सकता है।  
       रथयात्रा , रामजन्मभूमि, गोधरा से लेकर भट्टा परसौल,  रामलीला मैदान, जंतर मंतर को मिडिया ने  जिस  तरह से आन्दोलन बना कर प्रस्तुत किया पूरे घटनाक्रम में अनायास ही परिलक्षित होने लगता था किसी न  किसी  का पक्ष बनकर मिडिया वकालत में खड़ी प्रतीत होती रही . मंदिर आन्दोलन के दिनों में किर्तनिया  पूराण को तथ्यात्मक इतिहास बनाने एकेडेमिक प्रयोग चैनलों पर दिन रात चल रहा था। आन्दोलन को  विस्फोटक बिंदु तक पहुचाया गया। बाबरी मस्जिद ध्वस्त और दिल्ली का गद्दी हिलने लगी . जिस भी भाषा का प्रयोग अडवाणी, ऋतंभरा और तोगड़िया ने किया उसको ध्वनी विस्तारित करने में मिडिया पूरी ताकत लगा दी थी। उतना ही मुलायम सिह की कार्यवाही को दमनात्मक बताने में। "सरयू रक्त से लाल हो गई और  अयोध्या लाशों से पट गया" इत्यादि । मिडिया ने बिना पड़ताल के शहीदों ( मृतकों ) की बाकायदा सूची भी  जारी  कर दी .जिनमें कुछ सालों पहले मर चुके थे तो कुछ बाद तक जीवित थे। उस समय फैक्ट और  फिक्सन  का  घालमेल करने का जो क्रम VHP और BJP ने मिडिया में शुरू किया की हम भारतीय मिडिया में  'सत्य  दर्शन' को तरस गए।
       भ्रष्टाचार के खिलाफ स्टिंग आपरेशन , रिश्वत, भ्रष्ट आचरण , या षड्यंत्र का भंडाफोड़ करते है तब  लगता  है कि मिडिया अपनी  भूमिका, अपना कर्तव्य सचमुच निभा रही है। परन्तु इसकी प्रक्रिया, नीयत  और  वैधता  पर सवाल उठाने लगे है।  बहुत पहले बिहार में बूथ लूटने की "नकली कहानी " असली नायक  रसोइयाँ निकला   मिडिया का दायित्व  आपराधिक कृत्यों, सामाजिक कुरीतियों और मानवीय संवेदनाओं का सही बिम्ब दिखाना  रहा है। पर मंडल आयोग द्वारा अनुसूचित जाति / जनजाति ,पिछड़ी जाति या अल्प संख्यकों के हित में कोई  कदम सरकार उठती है तो तब मिडिया निष्पक्ष नही विपक्ष में कड़ी दिखाती है। मिडिया स्वयं प्रश्न खड़े करती,  लोगों को लामबंद करके उत्तेजित करती और आन्दोलनों की अगुवाई करती दिखी। पिछले उ प्र के 2007 के  विधान सभा चुनावों से मिडिया को सिखने और सुधरने के लिए पर्याप्त सामग्री थी, अगर चेत सके तो . मायावती को कम करके आँका , आखिरी दिनों में भाजपा की खिसकती जमीन बचाने की कोशिश की, परिणामो  ने तमाचे जड़  दिए। प्रेस कांफ्रेंस में मायावती ने शालीनता से नंगा किया " ----इसीलिए हमने चुनावों से पूर्व आपसे  बात नही की, हम क्यों अपना  और आपका समय बर्बाद करें , हम जनता के बीच  रहे मिडिया के नही। इससे  आपको आत्ममंथन का अवसर मिला है, आत्ममंथन अवश्य करें।"   स्पष्ट है बड़ी संख्या में लोंगों को ज्यादा दिनों तक भ्रमित नही किया जा सकता।
      जंतर मंतर पर कुछ अतिउत्साही नवयुवकों की गलतियों पर मंच से बार बार आलोचन के बाद भी BEA और  channels  ने अन्ना और टीम से माफ़ी मगवाई और आजाद मैदान में मिडिया कर्मियों पर हमला हुआ , गाड़ियाँ जलाई गयी, उस संगठन के खिलाफ चूँ  तक करने की हिम्मत किसी ने दिखाई  ? राज ठाकरे खुले मंच से हिंदी मिडिया को धमकी दी, सीधे कहे  तो जुतियाया पर क्या  BEA ने ,   N K Singh या किसी चैनल  ने माफ़ी  मांगने के लिए बोलने का दम  दिखाया ? विगत दिनों में मिडिया काफी शसक्त हुआ है, उसकी भूमिका और दायित्व की परिधि भी बढ़ी है इसके बाद भी पूरी तरह से निष्पक्ष और इमानदार चेहरा नही दिखता . अतः  अगर  मिडिया को अपनी जगह और सार्थकता सिद्ध करनी है तो सच्चाई और समर्पण के साथ बड़े परिदृश्य  में आम लोंगो के हितों के प्रति इमानदार बनना होगा,
 
 
          
 
 







 

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