क्या अन्ना आंदोलन बीच सड़क पर खड़ा है ?

क्या अन्ना आंदोलन बीच सड़क पर खड़ा है ? 

एक बार सरदार प्रताप सिंह कैरो देवीलाल के साथ दिल्ली से चंडीगढ़ जा रहे थे. एक कुत्ता बीच में आ गया. कुत्ते की मौत हो गई. सरदार कैरो ने थोड़ी दूर जाकर गाड़ी रुकवाई.  देवीलाल जी से  उन्होंने पूछा, बताओ कुत्ता क्यों मरा? का़फी सोचने के बाद देवीलाल ने कहा कि कुत्ते तो मरते रहते हैं, यूं ही मर गया होगा. सरदार प्रताप सिंह कैरो ने फिर पूछा, बताओ कुत्ता क्यों मरा? देवीलाल जी खामोश रहे, फिर कहा कि आप ही बताइये. तब सरदार प्रताप सिंह कैरो ने देवीलाल से कहा कि यह कुत्ता इसलिए मरा, क्योंकि यह फैसला नहीं कर पाया कि सड़क के इस किनारे जाना है या उस किनारे. फैसला न लेने की वजह से वह बीच में खड़ा रह गया. अगर इसने फैसला कर लिया होता तो सड़क के इस किनारे या उस किनारे चला गया होता और बच जाता. फैसला नहीं लेने की वजह से यह कुत्ता मारा गया.
         आन्दोलन के पहले से ही स्पष्ट था कि  सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई कठोर लोकपाल के पक्ष में  नहीं है  फिर भी अन्ना ने कई चिट्ठियां लिखी . कोई नतीजा नही निकला निकलना भी नही था क्योकि सरकार  अपनी जिद्द पर अड़ी थी सयुक्त बैठक इसका गवाह है। शायद  अन्ना की भी समस्या  यही है. वह फैसला नहीं कर पा रहे हैं कि क्या करें? इधर जाएं या उधर जाएं.  सरकार का समर्थन करना है या नहीं. अन्ना भंवर में हैं.  अन्ना समझ नहीं पा  रहे  है   कि सरकार लोकपाल के साथ क्या करना चाहती है,  अन्ना हजारे के आंदोलन में शामिल हुए लोग  भले ही कांग्रेसी  रहे  हो या भारतीय जनता पार्टी के पर सब के सब  भ्रष्टाचार से त्रस्त  आम जनता थी.
           अन्ना हजारे को यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए कि रामलीला मैदान के अनशन से वह कुछ हासिल नहीं कर पाए. इस बात पर ग़ौर करने की ज़रूरत है कि रामलीला मैदान के अनशन से पहले जो जन लोकपाल बिल की स्थिति थी और जो स्थिति आज है, उसमें कोई अंतर नहीं है. अन्ना हजारे को देश भर में जो समर्थन मिला, उसका फायदा टीम अन्ना नहीं उठा सकी. सरकार वैसा ही बिल लेकर आ रही है, जैसा वह पहले लाना चाहती थी. सरकार ने जो मसौदा तैयार किया है, उसमें प्रधानमंत्री लोकपाल के दायरे से बाहर हैं. सरकारी लोकपाल बिल में केंद्रीय जांच ब्यूरो यानी सीबीआई की भ्रष्टाचार निरोधक शाखा और केंद्रीय सतर्कता आयोग को लोकपाल से बाहर रखा गया है. सरकार ने निचले स्तर के अधिकारियों को भी लोकपाल के दायरे से बाहर कर दिया. न्यायपालिका में होने वाला भ्रष्टाचार भी लोकपाल के दायरे में नहीं है.  प्रधानमंत्री से पटवारी तक लोकपाल के दायरे में हों, सरकार का जो लोकपाल बिल है, वह क्या जन लोकपाल बिल है. तेरह दिनों के बाद टीम अन्ना ने  अनशन तोड़ दिया. जो सुझाव अनशन के बाद स्टैंडिंग कमेटी को दिया गया, वह स्टैंडिंग कमेटी के पास पहले से ही था. क्या  टीम अन्ना से चूक हो गयी?
         अन्ना के समर्थन में देश में कहां-कहां आंदोलन हुए, यह तो टीम अन्ना को भी पता नहीं होगा. भारतीय नागरिकों ने तो अमेरिका में भी अनशन किया. गांवों और क़स्बों में भी लोग आंदोलन कर रहे थे,  आंदोलन में शामिल हुए लोगों  की  नाराज़गी सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार के खिला़फ थी. महंगाई, बेरोज़गारी, बिजली आदि समस्याओं से जूझ रहे लोगों को लगा कि इस आंदोलन की वजह से बदलाव आएगा. यही वजह है कि बच्चे, बूढ़े, नौजवान, औरतें, अमीर-ग़रीब, हर जाति और वर्ग के लोगों ने अन्ना हजारे को समर्थन दिया. हर राजनीतिक दल के समर्थकों के साथ-साथ हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई सब अन्ना के आंदोलन में थे.  अन्ना  आंदोलन  की ताक़त को सही इस्तेमाल नही कर पाए .जनता की भावनाओं के साथ चलाना चाहिए था  लेकिन अन्ना हजारे ने ठीक उल्टा किया.  सरकार लोगों की भावनाओं का मज़ाक़ उड़ा रही थी , अन्ना सरकार की धूर्त  चाल  नही  समझ पाए . आज  सरकार एक लुंजपुंज लोकपाल बनाकर अन्ना के आंदोलन को खत्म करना चाहती है. सरकारी बिल में जन लोकपाल बिल के कई मुद्दों को दरकिनार कर दिया गया है.  सरकार जानती है कि लोकपाल बिल पेश करने के साथ ही टीम अन्ना का समर्थन आधा हो जाएगा. अगर ऐसा हुआ तो इसके लिए सरकार के साथ अन्ना हजारे भी ज़िम्मेदार होंगे. सरकार ने टीम अन्ना से निपटने के लिए दूसरे रास्ते भी खोल दिए हैं. सरकार उनके सहयोगियों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर उन्हें बदनाम करना चाहती है. पहले कांग्रेस पार्टी प्रवक्ता मनीष तिवारी ने अन्ना हजारे को भ्रष्ट बताया. शशि भूषण और प्रशांत भूषण के खिला़फ सीडी निकल जाती है. अरविंद केजरीवाल पर जुर्माना लगाया जाता है और किरण बेदी को हवाई स़फर के टिकट के लिए ज़लील किया जाता है. सरकार हर तरी़के से अन्ना हजारे और टीम अन्ना के सदस्यों को परेशान कर रही है. दबाव बना रही है  पर  यह समय सरकार पर दबाव देने का है .  लोगों के मन में यह सवाल उठने लगा है कि अगर सरकार मज़बूत लोकपाल क़ानून नहीं लाई, तब क्या होगा ?  क्या फिर से देश में पहले जैसा आंदोलन खड़ा हो सकेगा?  संसद में लोकपाल पर हुई चर्चा के दौरान राजनीतिक दलों और सरकार ने लोगों की भावनाओं के साथ मज़ाक़ किया है. क्या सरकार के इस अपराध में अन्ना भी शामिल हैं? प्रजातंत्र में लोकमत सर्वोपरि होता है. देश की जनता भ्रष्टाचार के खिला़फ एक कड़ा क़ानून चाहती है. यही जनमत है. देश की जनता घोटालों, महंगाई, भ्रष्टाचार, कालाधन, बिजली, स्वास्थ्य सेवाओं और रोज़गार की कमी से त्रस्त हो चुकी है. अन्ना ने लोगों में आशा जगाई, इसलिए लोग अन्ना के आंदोलन से जुड़े. देश की आर्थिक स्थिति खराब हो रही है. राजनीति का भी वही हाल है.  अन्ना को यह फैसला लेना है कि भ्रष्टाचार और मज़बूत लोकपाल की लड़ाई में वह कहां खड़े हैं. कुत्ता क्यों मरा-के ज़रिए प्रताप सिंह कैरो ने जो सीख देवीलाल को दी, वही निश्चय  अन्ना हजारे को करने  की ज़रूरत है. इस पार या उस पार .                                         
 उत्तमप्रकाश सिंह  24/7/2012

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